दुनियाभर में प्रसिद्ध चिपको आंदोलन के जरिये बचाए गए जंगल पर खतरा मंडरा रहा है। गौरा देवी और 27 महिलाओं ने रैणी गांव के जिस जंगल को बचाया था, अब वह धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। करीब एक साल पूर्व ऋषिगंगा घाटी में आए विनाशकारी सैलाब में इस जंगल का बड़ा हिस्सा खत्म हो गया था। जंगल के साथ ही निर्माणाधीन बिजली प्रोजेक्ट में कई कर्मचारी जिंदा दफ्न हो गए थे। आपदा के बाद चिपको आंदोलन की उस मूलधारणा को याद किया जाने लगा, जिसमें बड़े प्रोजेक्ट के निर्माण और पेड़ों के कटान से ऐसी विभीषिकाओं की आशंका जताई गई थी। रैणी गांव निवासी मुरली सिंह रावत कहते हैं कि रैणी आपदाओं का शिकार हो रही है।
1974 में लोगों के जेहन में जंगलों के कटने से होने वाले नुकसान का जो आभास हुआ था, उसे बाद में सिस्टम ने भुला दिया। पिछले साल की आपदा ने उन आशंकाओं को सच कर दिया। रैणी के प्रधान भवान सिंह कहते हैं कि गांव में कुल 45 परिवार रहते हैं, पर 15 परिवारों का भविष्य विस्थापन पर टिका हुआ है। गांव की जमीन दरक रही है। जिस जंगल को गौरा ने बचाया था, उसका 25% हिस्सा पिछली आपदा में बह गया था। जिस जंगल को रैणी की महिलाओं ने 1974 में अपना मायका बताकर कटने से बचाया था, वहां तक जाने के लिए आज रास्ता तक नहीं है। मुरली सिंह रावत कहते हैं कि ऋषिगंगा के किनारे-किनारे जंगल तक जाने का रास्ता था।इस जंगल का बड़ा हिस्सा नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क में है और बाकी बचा जंगल रैणी वन पंचायत के अधीन है, वहां अब लोग न चारा पत्ती लेने जा पा रहे हैं और न ही मवेशियों को चुगाने। नहीं हुआ नया वनीकरण: पंगराणी का जंगल रैणी की पहचान है, लोगों का कहना है कि यह हमारा गौरव है। लेकिन इसे बचाने के प्रयास नहीं हो रहे। पिछली आपदा में नुकसान हुआ, नया वनीकरण भी नहीं किया गया।
चिपको आंदोलन में बचाया जंगल हो रहा खत्म, 2021 की आपदा के बाद जंगल जाने के लिए रास्ता नहीं बचा
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