Wednesday, October 30, 2024
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पहाड़ की सेहत बिगाड़ रहा मैदान का प्रदूषण, हिमालय क्षेत्र में ब्लैक कार्बन को लेकर पढ़ें ये रिपोर्ट

दिल्ली समेत भारतीय गंगा मैदान (आईजीपी) का प्रदूषण पहाड़ों की सेहत खराब कर रहा है। मैदान से पराली जलने, वाहनों के ईंधन से निकलने वाला धुआं और धूल के कण दो से तीन दिन में हिमालयी क्षेत्रों में पहुंच रहे हैं। शीतकाल में तापमान में कमी और नमी की वजह से प्रदूषित तत्व घाटी क्षेत्रों में हवा के साथ घूम रहे हैं। जो स्थानीय निवासियों और वनस्पतियों की सेहत के लिए अच्छा नहीं है।
भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) के अनुसार, मानसून के बाद हिमालय क्षेत्र के प्रदूषण में तिगुनी वृद्धि हुई है। शीतकाल में हालात और खराब हो सकते हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, प्रदूषण से बचने के लिए विकल्प तलाशने होंगे। इसके लिए सभी को साथ मिलकर काम करना होगा। आईआईटीएम और एचएनबी गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय हिमालय क्षेत्र में ब्लैक कार्बन की स्थिति पर अध्ययन कर रहे हैं। आईआईटीएम दिल्ली के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. अतुल कुमार श्रीवास्तव के अनुसार, उत्तरी क्षेत्र पूर्ण रुप से हिमालय से घिरा हुआ है। यहां जो भी प्रदूषण उत्सर्जित होता है, वह शीतकाल में तापमान कम होने से वातावरण में घूमता रहता है और सतह के निकट ही रहता है।
धुंध की समस्या झेलनी पड़ रही
मानसून से पहले जब तेज हवा का सीजन शुरू होता है, तो प्रदूषक तत्व दो से तीन दिन में हिमालय क्षेत्रों में हवा के साथ पहुंच जाते हैं। उन्होंने बताया कि शीतकाल में तापमान कम होने से यह प्रदूषक तत्व घाटी क्षेत्रों में घूमते रहते हैं। इस वजह से घाटी क्षेत्रों में लोगों को धुंध की समस्या झेलनी पड़ती है। ग्रीष्मकाल में यह तत्व उच्च हिमालय क्षेत्रों में पहुंच जाते हैं। जो ग्लेशियरों की सेहत के लिए अच्छा नहीं है। इसलिए सभी सरकारों को मिलकर कार्बन व हानिककारक तत्वों का उत्सर्जन रोकने के लिए नीति बनानी होगी। वाहनों का कम से कम इस्तेमाल होना चाहिए। साथ ही ऐसे ईंधन का प्रयोग करना होगा, जो कम कार्बन उत्सर्जन करे। ब्लैक कार्बन का जो डाटा मिला है, वह काफी खराब स्थिति को बयां कर रहा है। ग्रीष्मकाल में 4 से 6 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर था। अक्टूबर में यह लगभग 12-15 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर तक पहुंच गया है। यानि कि दो से तीन गुना वृद्धि हुई है। इसकी वजह वाहनों का ईंधन, पराली जलाना और अन्य गतिविधियां हैं। – डॉ. अतुल कुमार श्रीवास्तव, आईआईटीएम दिल्ली के वरिष्ठ वैज्ञानिक

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